बिहार के वो फैक्टर, जिन्होंने NDA के सिर बांध दिया जीत का सेहरा और महागठबंधन को हार के दलदल में धकेला?

बिहार विधानसभा चुनाव में राज्य की जनता ने एनडीए प्रचंड बहुमत दिया है. राज्य की 243 सीटों में से एनडीए को 200 से ज्यादा सीटें मिली है. बीजेपी और जेडीयू एक बार फिर 2010 में मिली ऐतिहासिक बहुमत को दोहराया है. इस चुनाव में राज्य की मुख्य विपक्षी दल आरजेडी ने अपने इतिहास के सबसे खराब प्रदर्शन को दोहराया है.
एनडीए की जीत के कारण
1. नीतीश कुमार
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जेडीयू 20 साल सत्ता में रहने के बाद ने केवल सत्ता विरोधी लहर का मुकाबला किया, बल्कि 80 से ज्यादा सीटों पर जीत भी दर्ज की. एनडीए को 200 से अधिक सीट मिलना फिर से नीतीश कुमार को फिर मुख्यमंत्री बनने का संकेत है. इस नतीजे ने तेजस्वी यादव की खुद को बिहार का अगला नेता बनाने की कोशिशों पर पानी फेर दिया है. विपक्ष के चुनावी रण में हावी युवा बनाम अनुभव का विरोधाभास वोटों में तब्दील नहीं हो पाया.
2. चिराग पासवान
चिराग पासवान ने इस चुनाव में शानदार वापसी की है. 2020 में केवल एक सीट जीतने के बाद उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने 29 सीटों पर चुनाव लड़कर 19 सीटों पर जीत दर्ज किया. पासवान वोटों को एकजुट करने, युवा मतदाताओं और दलित समुदायों के बीच चिराग की अपील ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
3. असदुद्दीन ओवैसी और एआईएमआईएम
असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने बिहार के सीमांचल क्षेत्र में शानदार प्रदर्शन किया. उनकी पार्टी ने जोकीहाट (अररिया), कोचाधामन (किशनगंज), अमौर (पूर्णिया), बैसी (पूर्णिया), बहादुरगंज (किशनगंज ) सीटों पर जीत दर्ज की. जोकीहाट, कोचाधामन, अमौर और बैसी में उन्होंने पिछले चुनाव में भी जीत दर्ज की थी, लेकिन बाद में उनके विधायक आरजेडी में शामिल हो गए.
4. महिला मतदाता
2025 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को इतनी बड़ी जीत दिलाने में महिला मतदाताओं की अहम भूमिका रही. बिहार के चुनावी इतिहास में पहली बार महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा मतदान किया. उनके वोटिंग फीसदी ने निर्णायक रूप से एनडीए की ओर रुख मोड़ दिया. बिहार में बार पुरुषों ने 62.8 फीसदी तो महिलाओं ने 71.6 फीसदी वोटिंग किया. महिलाओं के लिए चलाई गई कल्याणकारी योजनाओं ने गरीब और पिछड़े समुदायों के बीच समर्थन को मजबूत करने में मदद की, जिसमें 10,000 रुपये की मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना भी शामिल है.
5. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए)
एनडीए के छोटे सहयोगियों जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM), उपेंद्र कुशवाह की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) और चिराग पासवान की एलजेपी (R) ने चुनावों में जोरदार प्रदर्शन किया. HAM ने छह में से पांच सीटों पर, एलजेपी (आर) 20 पर और आरएलएम चार सीटों पर जीत दर्ज की.
हारने का कारण
1. तेजस्वी यादव और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी)
महागठबंधन ने काफी राजनीतिक उठापटक के बाद तेजस्वी यादव का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए नामित किया था, लेकिन वे नीतीश कुमार के खिलाफ किसी भी सत्ता विरोधी लहर को वोटों में तब्दील करने में असमर्थ रहे. हालांकि, उन्होंने राघोपुर में अपना गढ़ जीत लिया. 2010 में 22 सीटों के बाद यह आरजेडी के चुनावी इतिहास में दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन है. इस बार आरजेडी को सिर्फ 25 सीटें मिली. 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी. तब ये लगने लगा था कि लालू यादव के बाद तेजस्वी ने बहुत ही मजबूती से आरजेडी को संभाला है.
2. राहुल गांधी
बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 61 सीट पर चुनाव लड़ा और केवल छह सीट ही जीत सकी. राज्य कांग्रेस अध्यक्ष राजेश राम कुटुम्बा सीट से हार गए. कांग्रेस के जो छह उम्मीदवार जीते उनमें सुरेंद्र प्रसाद (वाल्मीकि नगर), अभिषेक रंजन (चनपटिया), मनोज विश्वास (फॉर्ब्सगंज), अबिदुर रहमान (अररिया), मोहम्मद कमरूल होदा (किशनगंज) और मनोहर प्रसाद सिंह (मनिहारी) शामिल हैं. राहुल गांधी के वोट चोरी का मुद्दा बिहार की जनता के आगे फीका पड़ गया.
हालांकि राजनीति गलियारों में ये भी चर्चा थी की सीट बंटवारे से राहुल गांधी खुश नहीं थे. यही कारण है कि महागठबंधन की ओर से सीएम फेस के ऐलान के लिए राजस्थान के पूर्व सीएम अशोक गहलोत को कांग्रेस ने पटना भेजा था. 2020 में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन केवल 19 सीटें जीत पाई थी, जिससे महागठंधन की सरकार बनाने की उम्मीदों को तगड़ा झटका लगा था. राहुल गांधी की मतदाता अधिकार यात्रा, वोट चोरी के आरोपों और विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के खिलाफ अभियान के बावजूद पार्टी को मतदाताओं से जुड़ने में संघर्ष करना पड़ा.
3. प्रशांत किशोर
राजनीतिक रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की पार्टी को 2025 के बिहार चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा. दो साल की पदयात्रा और अच्छी-खासी लोकप्रियता के बाद भी जन सुराज कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया और उसे नोटा से भी कम वोट मिले. प्रशांति किशोर का डेवलपमेंट फर्स्ट का नारा ज्यादा असरदार नहीं रहा. उनके खुद चुनाव नहीं लड़ने के फैसले ने पार्टी की दिशा को लेकर और भी असमंजस की स्थिति पैदा कर दी. प्रशांत किशोर के हाथ तो कुछ नहीं लगा है, लेकिन उन्होंने तेजस्वी यादव का खेल बिगाड़ दिया.
4. मुकेश सहनी
सीमांचल क्षेत्र में एक प्रमुख चुनौती के रूप में पेश किए गए मुकेश सहनी महागठबंधन को उपमुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया. इसके बावजूद अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सके. उनकी विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के मुखिया मुकेश सहनी खुद को सन ऑफ मल्लाह बताते हैं, लेकिन वे अति पिछड़ी जाति बहुत सीटों पर वोट पाने में नाकाम रहे. उनका निषाद वोट बैंक भी कल्याणकारी योजनाओं के कारण एनडीए की ओर चला गया.
5. इंडिया गठबंधन
बंगाल और तमिलनाडु सहित कई महत्वपूर्ण चुनावों से पहले इंडिया गठबंधन को एक बड़ा झटका लगा है. सीटों के बंटवारे पर मतभेद और अस्पष्ट नेतृत्व ने पार्टी के कमजोर प्रदर्शन का कारण बना. बीजेपी ने 89 सीटों पर, जेडीयू 89, एलजेपी (आर) 19, हम 5, आरएलएम सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि विपक्ष को केवल 35 सीटें मिली है. वाम दल अपने पहले प्रभाव को बरकरार रखने में असफल रहे.



