राजस्थान: जैसलमेर बस हादसे के बाद भी सबक नहीं, मौत बनकर दौड़ रहीं मॉडिफाइड बसें

राजस्थान के जैसलमेर में बस हादसे में 20 से ज्यादा यात्रियों को अपनी जान इसलिए गंवानी पड़ी, क्योंकि जिस बस में आग लगी, उसमें यात्रियों की सुरक्षा के कोई पुख्ता इंतजाम नहीं थे. बस को मॉडिफाई करके तैयार कराया गया था. पीछे की तरफ कोई गेट नहीं था. इमरजेंसी एग्जिट काम नहीं कर रही थी.
वैसे राजस्थान में यात्रियों की जिंदगी से खिलवाड़ करते और नियम व मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए सड़कों पर दौड़ने वाली यह अकेली बस नहीं थी. शहर – शहर, कस्बे – कस्बे मौत को दावत देती इस तरह की बसें समूचे राजस्थान में देखी जा सकती हैं. इन्हें फिटनेस सर्टिफिकेट भी मिल जाता है और RTO में रजिस्ट्रेशन भी हो जाता है. राजधानी जयपुर में सीएम ऑफिस, विधानसभा सचिवालय और परिवहन मंत्री के दफ्तर से महज 3 से 4 किलोमीटर दूर सिंधी कैंप और आसपास के इलाकों से रोजाना सैकड़ों की तादाद में इस तरह की बसें चलती हैं.
मॉडिफाई करके बस को किया गया था तैयार
ABP News की टीम जयपुर से जोधपुर जाने वाली ऐसी ही एक AC बस में चढ़ी. इसमें सीट और स्लीपर दोनों ही थे. बस को मॉडिफाई करके तैयार किया गया था. बस में पीछे के हिस्से में एक भी फायर एक्सटिंग्विशर नहीं था. पीछे की तरफ गेट भी नहीं था. यानी एंट्री और एग्जिट ड्राइवर के बगल के एक ही गेट से कराई जा रही थी. दो इमरजेंसी खिड़की थी लेकिन दोनों के ही अंदर की तरफ सीट लगी हुई थी. यानी इमरजेंसी होने पर इस इमरजेंसी खिड़की से निकलना लगभग नामुमकिन सा है. दोनों स्लीपर के बीच सकरा रास्ता सिर्फ डेढ़ फीट का था. यानी किसी एक यात्री को क्रॉस करके दूसरा नहीं निकल सकता है.
‘फायर के उपकरण की नहीं कोई जरूरत’
बात करने पर बस के कंडक्टर ने बताया कि पीछे के हिस्से यानी जहां यात्री होते हैं वहां फायर के उपकरण की कोई जरूरत ही नहीं. उसने ड्राइवर की केबिन में फायर एक्सटिंग्विशर होने की बात कही, लेकिन हमें वह वहां भी नजर नहीं आया. कुछ ही देर में एक स्टाफ नया फायर एक्सटिंग्विशर लेकर वहां जरूर पहुंचा. हमारे सामने ही उसकी पॉलिथीन हटाई गई. दावा किया गया कि ड्राइवर की केबिन में आग बुझाने का एक और उपकरण है. बमुश्किल ढाई सौ एमएल की क्षमता वाले इस उपकरण में कोई लिक्विड नहीं था. यानी यह भी महज शो पीस ही था.
भगवान भरोसे ही अपना सफर तय करते हैं यात्री
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस तरह की बसों में यात्री भगवान भरोसे ही अपना सफर तय करते हैं. जिम्मेदार लोग आंख मूंद कर रखते हैं. हादसों के बाद हाय तौबा मचती है. दो-चार दिन बाद फिर से फिटनेस सर्टिफिकेट दे दिए जाते हैं और बंदरबांट में सबको अपना अपना हिस्सा मिलने लगता है.